वंदे मातरम के 150 साल हुए पूरे, जानें किन परिस्थितियों में लिखा गया था यह राष्ट्र गीत?

भारतीय संसद में आज जिस ‘वंदे मातरम’ पर 10 घंटे की चर्चा होने जा रही है, वह सिर्फ एक गीत नहीं, बल्कि भारत के आत्मसम्मान, आजादी और राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है।

Dec 8, 2025 - 13:04
Dec 8, 2025 - 16:10
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वंदे मातरम के 150 साल हुए पूरे, जानें किन परिस्थितियों में लिखा गया था यह राष्ट्र गीत?

भारतीय संसद में आज जिस ‘वंदे मातरम’ पर 10 घंटे की चर्चा होने जा रही है, वह सिर्फ एक गीत नहीं, बल्कि भारत के आत्मसम्मान, आजादी और राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है। 1875 में रचा गया यह गीत अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उठी भारतीय आत्मा की पहली आवाज थी।

अंग्रेजों के फरमान से उपजी बगावत की धुन

1870 का दशक में भारत पर ब्रिटिश साम्राज्य का राज था। अंग्रेजों ने एक तुगलकी फरमान जारी किया कि सभी सरकारी मुलाजिमों को ‘गॉड सेव द क्वीन’ गाना जरूरी होगा। यह आदेश उस दौर के डिप्टी मजिस्ट्रेट बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को असहनीय लगा। अपने ही देश में विदेशी रानी की जय-जयकार? यह उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाली बात थी। इसी क्षण उनके भीतर देशभक्ति का ज्वालामुखी फूट पड़ा और 7 नवंबर 1875 को अक्षय नवमी के शुभ अवसर पर उन्होंने रचा “वंदे मातरम”। यह गीत बाद में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में प्रकाशित हुआ, जो संन्यासी विद्रोह की कहानी पर आधारित था। इसका उद्देश्य था भारतीयों में स्वाभिमान और स्वतंत्रता की चेतना जगाना।

जानें कौन थे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ?

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय सिर्फ एक कवि या लेखक नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय चेतना के पहले शिल्पकार थे। उनका जन्म 26 जून 1838 को पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव में हुआ। वे 1857 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से BA करने वाले पहले भारतीय बने और फिर 1869 में कानून की डिग्री ली। सरकारी सेवा में उन्होंने डिप्टी मजिस्ट्रेट और सचिव जैसे पदों पर काम किया, लेकिन साहित्य ही उनका असली कर्मक्षेत्र था। इसके बाद 1865 में उन्होंने अपना पहला बंगाली उपन्यास ‘दुर्गेश नंदिनी’ लिखा, जिसने उन्हें बंगाली साहित्य का जन-प्रिय लेखक बना दिया। हालांकि उन्होंने 8 अप्रैल  1894 को अंतिम सांस ली, लेकिन उनकी रचना ‘वंदे मातरम’ उन्हें अमर बना गई।

पहली बार कब गूंजा ‘वंदे मातरम’ ?

‘वंदे मातरम’ पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1896 के कलकत्ता अधिवेशन में गूंजा। महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को मंच पर गाया। हालांकि इससे पहले 1886 के कांग्रेस सत्र में हेम चंद्र बंदोपाध्याय ने इसके शुरुआती दो पैराग्राफ गाए थे, लेकिन टैगोर की प्रस्तुति ने इसे आंदोलन का प्रतीक बना दिया। इसके बाद यह गीत हर स्वतंत्रता सेनानी की जुबान पर था। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, हर भारतीय “वंदे मातरम” के नारे से जोश भरता था। सुभाष चंद्र बोस ने तो इसे आजाद हिंद फौज का मार्चिंग सॉन्ग बना दिया। ब्रिटिश सरकार ने इस गीत को कई बार प्रतिबंधित करने की कोशिश की थी, लेकिन “वंदे मातरम” तब तक विद्रोह की ललकार बन चुका था।

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