इन 3 फैक्टर के सहारे हारती BJP को हरियाणा चुनाव में मिलती दिखाई दे रही जीत
सबसे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा का कौन सा नैरेटिव चला कि एग्जिट पोल में लड़ाई से बाहर दिख रही भाजपा रुझानों में आगे निकल गई। जमीनी स्तर पर भाजपा के तीन नैरेटिव सबसे ज्यादा चर्चा में रहे।
हरियाणा में शुरुआती रुझान समय के साथ जिस तरह बदले, वह देखने लायक है। चुनाव परिणाम अभी अंतिम नहीं हैं, लेकिन जिस तरह से भाजपा ने अचानक बढ़त हासिल की है, उससे कई सवाल उठते हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा का कौन सा नैरेटिव चला कि एग्जिट पोल में लड़ाई से बाहर दिख रही भाजपा रुझानों में आगे निकल गई। जमीनी स्तर पर भाजपा के तीन नैरेटिव सबसे ज्यादा चर्चा में रहे।
पहला, कुमारी शैलजा के जरिए दलित कार्ड, दूसरा, खर्च और पर्चियों के आरोप और तीसरा, मुख्यमंत्री का बदलना।
1. कुमारी शैलजा के जरिए दलित कार्ड
भाजपा ने चुनाव में कुमारी शैलजा का मुद्दा सबसे ज्यादा उठाया। जिस तरह से कुमारी शैलजा को उनकी इच्छा के बावजूद विधानसभा का टिकट नहीं मिला, उनके करीबियों को कम टिकट मिले, उसे भाजपा ने खूब उठाया। उन्होंने साफ संदेश देने की कोशिश की कि कांग्रेस दलित नेताओं का सम्मान नहीं करती। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इशारों-इशारों में इस पर हमला करते नजर आए। जिस तरह से कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में संविधान बदलने का नैरेटिव चलाया, भाजपा ने शैलजा को उसके काउंटर नैरेटिव के तौर पर इस्तेमाल किया। हरियाणा में अगर तीसरी बार भाजपा सरकार बनाती है तो माना जा सकता है कि वह दलितों को अपने पाले में लाने में सफल रही है।
2. खर्ची और पर्ची का आरोप
दूसरा मुद्दा जो भाजपा ने खूब उठाया, वह नौकरियों में खर्ची-पर्ची के कथित चलन को रोकना था। भाजपा भूपेंद्र हुड्डा को खर्ची-पर्ची के जरिए घेरती रही है कि उनके 10 साल के कार्यकाल में सिर्फ पैसे देकर नौकरियां दी गईं और पर्ची का मतलब सिफारिश है। इतना ही नहीं, ये नौकरियां रोहतक क्षेत्र और जाट समुदाय के लोगों तक ही सीमित थीं। जबकि भाजपा का दावा था कि उनके 10 साल के शासन में बिना पैसे और भेदभाव के सभी वर्गों को नौकरियां दी गईं। इस नैरेटिव की भी जनता के बीच खूब चर्चा हुई। अगर भाजपा चुनाव जीतती है तो यह फैक्टर भी अहम भूमिका निभाएगा।
3. मुख्यमंत्री का बदलाव
मनोहर लाल खट्टर करीब 10 साल तक हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे। उन्हें पंजाबी चेहरे के तौर पर प्रचारित किया गया और जाट बनाम गैर-जाट के नैरेटिव के तौर पर कुर्सी पर बनाए रखा गया। लेकिन जिस तरह से चुनाव से कुछ महीने पहले उन्हें हटाया गया, उसका मतलब यह निकाला गया कि ऐसा करके बीजेपी 10 साल की एंटी इनकंबेंसी को खत्म करने की कोशिश कर रही है, उनकी जगह एक ओबीसी चेहरे नायब सिंह सैनी को तरजीह दी गई। नायब सैनी को खट्टर का करीबी और उनकी पसंद जरूर बताया जाता है, लेकिन इसके जरिए बीजेपी ने दो संदेश देने की कोशिश की, एक तो ये कि वो जाट बनाम गैर जाट के नैरेटिव पर चल रही है और OBC उसकी प्राथमिकता है। दूसरा इसके जरिए उन लोगों को मनाने की कोशिश की गई जो मनोहर लाल खट्टर से खुश नहीं थे, अगर रुझानों में फिलहाल आगे चल रही बीजेपी सरकार बनाती है तो माना जा सकता है कि उसका ये दांव काम भी आया और जाट बनाम गैर जाट की बाइनरी में गैर जाट उसके साथ खड़ा हो गया।
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