अरावली को लेकर सोशल मीडिया पर घमासान…आखिर क्यों गरमाया विवाद ?
अरावली रेंज ग्राउंडवॉटर को रिचार्ज करती है, जंगलों और वन्यजीवों को रहने की जगह देती है, और लाखों लोगों को सांस लेने लायक हवा देती है। आज, यही अरावली रेंज एक बार फिर राजनीति, कानून और पर्यावरण से जुड़े विवाद का केंद्र बन गई है। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक, हर जगह हंगामा मचा हुआ है।
अरावली केवल पत्थरों और पहाड़ियों की एक श्रृंखला नहीं है, बल्कि उत्तर भारत की प्राकृतिक जीवनरेखा मानी जाती है। यही पर्वतमाला थार मरुस्थल से उठने वाली रेत, लू और धूल भरी हवाओं को दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के उपजाऊ क्षेत्रों तक पहुंचने से रोकती है। अरावली भूजल को रिचार्ज करती है, जंगलों और वन्यजीवों को आश्रय देती है और करोड़ों लोगों को सांस लेने योग्य हवा उपलब्ध कराती है।
लेकिन अब यही अरावली एक बार फिर सियासत, कानून और पर्यावरणीय सरोकारों के टकराव का केंद्र बन गई है। सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से दाखिल एक जवाब के बाद राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली तक इस मुद्दे पर विरोध और बहस तेज हो गई है। मामला सिर्फ कानूनी व्याख्या का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से जुड़ा हुआ माना जा रहा है।
राज्यों में सियासी हलचल तेज
अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सरकार के रुख के सामने आने के बाद राजस्थान समेत कई राज्यों में राजनीतिक तापमान बढ़ गया है। सोशल मीडिया पर आम लोग, पर्यावरणविद और सामाजिक संगठन सरकार की नीति पर सवाल उठा रहे हैं। वहीं विपक्षी दल कांग्रेस ने इसे उत्तर भारत के पर्यावरण और अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा बताते हुए सड़क पर उतरने का ऐलान किया है।
#SaveAravalli का राजस्थान में समर्थन
सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने #SaveAravalli अभियान शुरू कर सरकार की प्रस्तावित नीति के खिलाफ आवाज बुलंद की है। इस मुहिम को राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का समर्थन भी मिला है।
उन्होंने अरावली की नई प्रस्तावित परिभाषा पर आपत्ति जताते हुए कहा कि इस पर्वतमाला को केवल ऊंचाई या तकनीकी पैमानों से नहीं, बल्कि उसके पर्यावरणीय महत्व के आधार पर देखा जाना चाहिए। गहलोत ने समर्थन के प्रतीक के तौर पर अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल तस्वीर बदली और इसे अरावली के संरक्षण के लिए सांकेतिक विरोध बताया।
“उत्तर भारत की सुरक्षा दीवार है अरावली”
अशोक गहलोत ने चेतावनी देते हुए कहा कि अरावली उत्तर भारत के लिए एक प्राकृतिक ढाल की तरह काम करती है, जो थार मरुस्थल की रेत और गर्म हवाओं को दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी यूपी तक पहुंचने से रोकती है। यदि छोटी पहाड़ियों और गैप वाले इलाकों को खनन के लिए खोल दिया गया, तो मरुस्थलीकरण तेज होगा और तापमान में खतरनाक इजाफा देखने को मिल सकता है।
उन्होंने कहा कि अरावली की पहाड़ियां और जंगल एनसीआर समेत आसपास के इलाकों के लिए फेफड़ों का काम करते हैं, जो धूल भरी आंधियों और प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं। अरावली कमजोर हुई तो प्रदूषण और जल संकट दोनों ही भयावह रूप ले सकते हैं।
जल संकट और जैव विविधता पर खतरा
गहलोत ने यह भी कहा कि अरावली की चट्टानें भूजल रिचार्ज का प्रमुख स्रोत हैं। यदि पहाड़ियां खत्म होती हैं तो आने वाले समय में पीने के पानी की भारी किल्लत, वन्यजीवों का लुप्त होना और पूरी पारिस्थितिकी व्यवस्था का संतुलन बिगड़ सकता है।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने जवाब में कहा है कि अरावली की पहचान और संरक्षण की सीमा तय करने के लिए ऊंचाई को आधार बनाया जाना चाहिए। सरकार के मुताबिक, स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ियां ही अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा मानी जाएं। इससे कम ऊंचाई वाले टीले, छोटी पहाड़ियां और गैपिंग एरिया को अरावली की परिभाषा में शामिल न किया जाए।
केंद्र सरकार का तर्क है कि यह परिभाषा वैज्ञानिक आधार पर तैयार की गई है और इससे विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बनाया जा सकेगा। सरकार के अनुसार, स्पष्ट परिभाषा न होने के कारण लंबे समय से नीतिगत भ्रम की स्थिति बनी हुई थी।
मौजूदा विवाद की जड़ क्या है?
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) ने करीब 10 हजार पहाड़ियों को अरावली का हिस्सा मानते हुए इन क्षेत्रों में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। इसके विरोध में राजस्थान सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची और तर्क दिया कि इससे राज्य में लगभग सभी खनन गतिविधियां ठप हो जाएंगी।
मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने नए सिरे से कानून बनाने के निर्देश दिए और कहा कि पुराने खनन कार्य जारी रह सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें दोबारा अनुमति लेनी होगी और यह साबित करना होगा कि वे पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं।
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