कौन थे Statue Of Equality वाले संत रामानुज? , जिनकी मूर्ती का आज पीएम मोदी ने किया लोकार्पण…

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को हैदराबाद के तेलंगाना में दुनिया की धातु से बनी सबसे ऊंची मूर्ति का लोकापर्ण किया है। वहीं 54 फिट ऊंचे ‘भद्रा वेदी’ को इसका आधार बनाया गया है और इसके साथ-साथ उसके इसके अंदर एक वैदिक डिजिटल लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर भी है। वहीं इस मूर्ति में प्राचीन सनातन ग्रंथों से लेकर रामानुजाचार्य के जीवन से सम्बंधित दस्तावेज भी होंगे।

विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति का लोकापर्ण पीएम मोदी ने आज किया तो ऐसे में ये सवाल मन में आना जायज हैं कि आखिर जिस मूर्ति का अनावरण आज पीएम मोदी ने किया उस मूर्ति में वह संत आखिर हैं कौन ?

तो अब हम आपको बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज हैदराबाद के तेलंगाना में संत रामानुजाचार्य की मूर्ती का लोकार्पण किया, वहीं संत रामानुजाचार्य का जीवनकाल 120 वर्षों का था। उन्होंने 1137 ईस्वी में अपने शरीर का त्याग किया था। वैष्णव समाज के प्रमुख संतों में उनका नाम लिया जाता है। 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने विद्वान यादव प्रकाश को कांची में अपना गुरु बनाया था। हालाँकि, वो अपने गुरु के ‘अद्वैत वेदांत’ के सिद्धांतों से सहमत नहीं थे। उन्होंने तमिल के ‘अलवर’ परंपरा के संतों नाथमुनि और यमुनाचार्य के नक्शेकदम पर चलने का निर्णय लिया। उन्हें ‘विशिष्ट अद्वैत’ सिद्धांत का जनक माना जाता है।

रामानुजाचार्य ने जाति विभेद के खिलाफ अभियान चलाया और महिलाओं को सशक्त करने के लिए जीवन भर परिश्रम किया। इस्लामी आक्रांता जब भारत में पाँव पसारने के लिए बेताब थे, ऐसे समय में उन्होंने भारत की जनता के भीतर की धार्मिक भावनाओं को और प्रबल किया। उन्होंने हर वर्ग के लोगों के बीच ‘मुक्ति और मोक्ष’ के मंत्रों के बारे में सार्वजनिक रूप से बताया। उनका कहना था कि ये चीजें गोपनीय नहीं रहनी चाहिए, सभी वर्गों के लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए।

खुद बाबासाहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने लिखा है कि हिन्दू धर्म में समता की दिशा में संत रामानुजाचार्य ने महत्वपूर्ण कार्य किए और उन्हें लागू करने का प्रयास भी किया। उनकी 1000वीं जयंती पर डाक टिकट जारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका जिक्र भी किया था। उन्होंने गैर-ब्राह्मण कांचीपूर्ण को अपना गुरु माना। उनके भोजन करने के पश्चात पत्नी द्वारा घर को शुद्ध करते हुए देख कर वो विचलित हुए। संन्यास लेकर उन्होंने जनसेवा को अपना ध्येय बना लिया।

डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं, “तिरुवल्ली में एक दलित महिला के साथ शास्त्रार्थ के बाद उन्होंने उक्त महिला से कहा कि आप मेरे से ज्यादा ज्ञानी हैं। इसके बाद संत रामानुजाचार्य ने उक्त महिला को दीक्षा दी और उसकी मूर्ति बना कर मंदिर में स्थापित किया। उन्होंने धनुर्दास नाम के पिछड़े समाज के व्यक्ति को अपना शिष्य बनाया। नदी में स्नान करने के बाद वो अपने इसी शिष्य के माध्यम से वापस आते थे।” अब समता का सन्देश देने वाले रामानुजाचार्य की प्रतिमा पूरे विश्व को उनके सिद्धांतों का साक्षात्कार करने की प्रेरणा देगी।

रामानुजाचार्य ने वेदों की परंपरा को भक्ति से जोड़ा। जगद्गुरु शंकराचार्य के बाद उनका ही नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने भक्ति आंदोलन से पिछड़े समाज को जोड़ कर कुलीन वैदिक आंदोलन के साथ उसके सेतु का निर्माण किया। उनका जन्म मद्रास से कुछ दूरी पर स्थित ‘पेरबुधूरम’ में हुआ था। उनके पिता का नाम आसुरीदेव दीक्षित और माता का नाम काँतिमति था। उनका मामा शैलपूर्ण एक संन्यासी थे और माँ के नाना यमुनाचार्य एक बड़े संत थे।

8 वर्ष की उम्र में जनेऊ संस्कार के साथ ही उन्हें वेदों की शिक्षा देने का कार्य शुरू कर दिया गया था। बाल्यकाल में ही सब उनकी बुद्धिमत्ता और स्मरणशक्ति के कायल हो गए थे। 16 वर्ष की उम्र में रक्षाम्बा नामक की लड़की से उनका विवाह हुआ था। उन्हें वैष्णव संप्रदाय की दीक्षा दी गई। श्रीरंगम में अपने निधन से पहले यमुनाचार्य ने रामानुजाचार्य के लिए तीन सन्देश छोड़े थे – वेदांत सूत्रों के भाष्य की रचना करो, आलवारों के भजन संग्रह को संकलित कर ‘पंचम वेद’ के नाम से लोकप्रिय बनाओ और मुनि पराशर के नाम पर किसी विद्वान का नामकरण करो।